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१८सितंबर ,१९५७
मां, अतिमानसिक जीवनमें गुह्यविद्याका क्या स्थान होगा?
विशेष रूपसे गुहाबीद्या ही क्यों?
क्योंकि सब कुछ ज्ञात होगा, है न?
गुह्यविद्या ही क्यों? अतिमानसिक जीवनमें हर चीजके लिये स्थान है! क्या तुम्हें इसमें विशेष रुचि है?
गुह्यविद्याके बारेमें हम जो कुछ समझते हैं उसके अनुसार यह एक ऐसी विद्या है जो हमें अदृश्य चीजोंका ज्ञान प्रदान करती है, अदृश्य जगत्का, अदृश्य शक्तियोंका... । परंतु अति- मानसिक जगत्में तो यह सब ज्ञात ही होगा ।
गुह्मविद्यासे तुम क्या समझते हो?
अदृश्य जगत् और अदृश्य शक्तियोंका ज्ञान ।
तो -- मैं पूरी तरह समझी नहीं ।. अतिमानसमें व्यक्तिके पास ज्ञान नहीं रहेगा या कुछ ओर?
व्यक्तिके पास पहलेसे ही ज्ञान होगा, इसलिये...
पहलेसे... पर तब वह गुह्यजान होगा! मैं तरह ठीक नहीं समझी ।
१७५ गुह्यविद्या चीजोंके साथ बरतनेका एक (वास ढंग है । 'दिव्य जीवन' पुस्तकमें श्रीअरविदने इसे काफी विस्तारसे समझाया है । यह जानने ओर क्रिया करनेकी विशेष पद्धति है और कोई कारण नहीं कि इसे लुप्त हां ' जाना चाहिये या
यह स्वाभाविक चेतना बन जायेगी । शायद तब इस गुह्य- विद्याको सीखनेकी आवश्यकता नहीं रहेगी ।
ओह! तुम मोचते हो कि गुह्यविद्या ऐसे सीखा जाती है जैसे कोई पियानो बजाना सीखता है! (हंसी) पर यह ऐसी बात नहीं है, कुछ भी हों, यह ऐसे नहीं होता । असलमें, जिनमें कोई खास अभिवृत्ति नही होती वे गुह्यविद्यापर संसारकी सब पुस्तकें पढ सकते हैं और फिर भी उन्हें पता नहीं चलेगा कि इसका प्रयोग कैसे किया जाय । इसके लिये खास योग्यताकी आवश्यकता होती है ।
यह ऐसा ही है जैसे तुम पियानो बजानेकी विधिपर संसारकी सभी पुस्तकें पढ ले। -- यदि तुम उसे जाओगे नहीं ते।. तुम्हें, कभी बजाना नहीं आयेगा । पर जैसे कुछ जन्मजात संगीतज्ञ और जन्मजात कला- कार होते है वैसे ही कुछ ऐसे लोग भी होते है जो अपने सारे जीवन-भर इसपर मेहनत करते है और कुछ हासिल नहीं कर पाते । गुह्यविद्याके साथ भी ऐसी ही बात है । यदि तुम्हारा मतलब यह हो कि जब. व्यक्ति अतिमानव बन जायेगा तो उसे सब कुछ करनेकी नैसर्गिक क्षमता प्राप्त हों जायगी तो यह बात ठीक है, पर इसका अर्थ यह नह। कि क्षमता सहज-स्वाभाविक-क होगी । हो सकता है तुम्हें, अपना काम सीखनेकी विषयपर ध्यान एकाग्र करनेकी आवश्यकता पड़े ओर यह भी हो सकता है कि व्यक्तिके पास सब कुछ कर सकनेकी सामर्थ्य हो, पर यह जरूरी नहीं कि वह उसे करे हीं! यह सब होते हुए मी भेद होंगे, श्रेणी- करण होगा, व्यक्ति-व्यक्तिके और उनकी विशिहट रुचियोंके अनुसार विशेष योग्यताएं मी होगा । मैं नहीं समझ पाती कि तुम अतिमानसिक जगत्को किसी औरकी अपेक्षा विशेषत: गुह्यक्रियासे ही वंचित क्यों रखना चाहते हो ।
अतिमानसिक जीवनके बारेमें तुम्हारी क्या धारणा है? क्या तुम इसे एक ऐसा स्वर्ग समझते हो जिसमें प्रत्येक व्यक्ति एक ही-सी चीज, एक ही-से ढंगसे करता होगा... स्वर्ग-सम्बन्धी पुराना विचार कि प्रत्येक व्यक्ति वहां देवदूत होता है और वीणा बजाया करता है? बात बिलकुल ऐसी ही नहीं नैण । वहां सब विभेद होंगे, विशिष्टताएं होंगी और विभिन्न क्रिया-
१७६ कलाप होंगे, पर व्यक्ति साधारण मानव अज्ञानमें कार्य करनेके स्थानपर ज्ञानमें कार्य करेगा, बस, यही फर्क होगा ।
और क्षमताएं भी बढ़ जायेंगी, है न?
क्षमताएं?... तुम गुह्यविद्याको इस रूपमें लें रहें हों कि यह जीवन और वस्तुओंपर, एक प्रक्रियाके रूपमें, कार्य करनेकी शक्ति है, पर वह गुह्यविद्या नही, वह तो जादूगरी है ।
गुह्यविद्या चेतनाका एक विशेष प्रयोग है, बस । कहनेका मतलब यह कि इस समय, जैसा कि मनुष्य इसका व्यवहार करते है, यह बाह्य रूपोंके पीछे स्थित शक्तियोंका और उनकी क्रीडाका सीधा प्रत्यक्ष एवं सचेतन बोध है और चूकि यह उनका सीधा प्रत्यक्ष बोध होता है इसलिये व्यक्तिके पास उनपर क्रिया करनेकी शक्ति-सामर्थ्य भी रहती है और वह इन शक्तियोंकी क्रीडामें, अभीष्ट परिणामको? प्राप्तिके लिये, कम व अधिक उच्च संकल्पका हस्तक्षेप करा लेता है ।
अतिमानसिक जगत्में ये शक्ति-सामर्थ्य सहज-स्वाभाविक रूप- मे व्यक्तिको प्राप्त रहेंगे ।
सहज-स्वाभाविक रूपमें... । परन्तु प्रत्येक व्यक्ति ही गुह्यविद्याका प्रयोग करता है, बिना यह जाने कि वह उसका प्रयोग कर रहा है । प्रत्येक व्यक्तिको यह सामर्थ्य सहज-स्वाभाविक रूपमें प्राप्त है पर वह जानता नहीं कि उसे यह प्राप्त है । यह सामर्थ्य सुईकी नोक बराबर बहुत थोडी हो सकती है, औ र यह बहुत बड़ी भी हे । सकती है, पृथ्वी या विश्व जितनी बड़ी भी; पर तुम उसका प्रयोग किये बिना रह रहीं सकते, केवल तुम उस बारेमें कुछ जानते नही । तो, जो फर्क तुम कर सकते हों वह, बस, इतना ही है कि जब व्यक्तिको अतिमानसिक चेतना प्राप्त हो जायगी ते'। वह उसे जानता होगा, बस इतना ही । तो, तुम्हारा प्रश्न अपने-आप समाप्त हे [ जाता है ।
जब तुम सोचते हो ( इस बातके। पता नहीं कितनी ही बार मैंने तुम्हें बताया है), जब तुम सोचते हो तो तुम गुह्यविद्याका ही व्यवहार कर रहें होते हों । केवल, तुम इस बारेमें कुछ जानते नहीं । जब तुम किसी व्यक्तिके बारेमें सोचते हो ते। तुम्हारा एक भाग स्वतः ही उसके संपर्कमें आ जाता है और यदि तुम्हारे विचारके साथ कोई संकल्प मी जुड़ा हुआ
१७७ हों कि वह व्यक्ति इस प्रकार या उस प्रकारका हा, इस काम या उस कामको करे, इस बात या उस बातको समझे (वह चाहे जो भी हो), हां तो, तुम गुह्यविद्याका ही व्यवहार कर रहे होते हो, केवल तुम इसे जानते नहीं... । कुछ लोग इसे शक्तिशाली ढंगसे कर लेते हैं और यदि उनका विचार सशक्त हों तो वह चीज चरितार्थ और सिद्ध हो जाती है, जब कि दूसरोंमें यह (सामर्थ्य) बहुत दुर्बल होतीं है और उन्हें बहुत फल नहीं मिलता । यह तुम्हारे विचारकी प्रबलतापर ओर साथ ही तुम्हारी एकाग्रताकी क्षमतापर निर्भर है । पर इस प्रकारकी गुह्यविद्याका हर कोई बिना जाने ही व्यवहार करता है । तो फर्क इतना ही है कि जौ गुह्यविद्याका वस्तुत: अभ्यास एव प्रयोग करता है वह जानता है कि बह इसे कर रहा है और शायद यह मी कि वह कैसे इसका प्रयोग कर रहा ' ।
आपने हमें श्रीयुत 'क्ष' के बारेमें कई बार बताया है कि ३ एक महान् गुह्मवेत्ता थे, मैंने सोचा कि अतिमानसिक जगत्में तो यह एक सहज प्राकृतिक चीज होगी, हर कोई उन जैसा समर्थ होगा ।
परन्तु विशेष रूपसे यही क्यों? यह) बात तो मेरी समझमें नहीं आयी! विशेष रूपसे गुह्यविद्या ही क्यों?
क्योंकि मैं सोचता हू कि अदृश्य जगत्का सब ज्ञान गुह्यविद्या- के क्षेत्रके अंतर्गत आ जाता है ।
हां !
तो, इस समय साधारण जीवनमें मनुष्य अचेतन या अर्द्ध- चेतन है, पर पूर्ण चेतना प्राप्त हो जानेपर वह गुह्मविद्यासे भी वैसे ही पूर्ण रूपसे सचेतन हो जायगा ।
नहीं, यह सब बहुत सुन्दर है, परन्तु तुम सोचते हों कि अतिमानसिक जीवन- मे कार्य-कालोंमें कोई श्रेणी-विभाजन नहीं रहेगा या कुछ और? यह कि वहां सब अभिन्न, एक-सदृश होगा, सबके पास एक सर्व-सामान्य सहज प्राकृतिक क्षमता होगी?
१७८ नहीं, वहां भी क्रम-सोपान होगा ।
वहां वस्तुओंसे बरतनेके सदा विभिन्न तरीके होंगे । हों सकता है कि गुह्य- शक्ति अधिक सर्व-सामान्य हों, परन्तु यदि तुम्हारी कल्पना ऐसी हो कि वहां प्रत्येकके पास समान रूपसे एक ही-सी गुह्यशक्ति होगी तो वहां कोई विभेद नहीं रहेगा । समझ रहे हो? कुछ लोंगोंके पास गुह्यशक्ति होती है आर वे उसका प्रयोग उनपर करते है जिनके पास वह नहीं होती किन्तु यदि प्रत्येकको वह ममान रूपसे उपलब्ध हों तो वह फिर गुह्यविद्या ही नहीं रहेगी.. । तुम्हारा अभिप्राय यही है?
जी ।
आह!... खैर, मुझे पूरा विठवास है कि अत्यन्त पूर्ण अतिमानसिक स्थितिके चरितार्थ हो जानेपर भी व्यक्ति-व्यक्तिके बीच क्षमताओं और गुणोंका विभेद माद बना रहेगा । परन्तु बजाय इसके कि व्यक्ति कमी तो अपने स्थान- पर रहे और कमी न रहे, जो करना चाहिये. उसे कमी तो करे और कमी न करे, और करे भी तो अचेतन रूपमें, इसकी जगह वह अपने सही स्थान- पर -- मैं सोचती हू सदा अपने ही स्थानपर -- होगा और जो उसे करना चाहिये उसे सदा करेगा ओर सचेतन रूपसे करेगा । दूसरे शब्दोंमें, बजाय वहां होने, ओर अधेएमें जाननेकी कोशिश करने एवं टटोलनेके वह जानता होगा कि उसे क्या करना है और उसे आतम रूपसे करेगा । यही सारा फर्क है । विभिन्नताZ वहां रहेगी, प्रत्येकका अपना भाग होगा, अपना स्थान होगा, प्रन्येकक्ए: अपने क्रिया-कलाप होंगे । यह मत सोचो कि हर एक एक जैसा दीरवने लगेगा, एक ही-सा काम, एक ही-से तरीकेसे करता होगा! वह तो भयंकर संसार होगा ।
हम कह सकते है कि अतिमानसिक जगत्में ओर हमारे वर्तमान जगत्में इस प्रकारका भेद होगा : जो कुछ तुम नहीं जानते उसे जान जाओगे, जो तुम नही कर सकते उसे कर सकोगे, जो तुम नहीं समझते उसे समझ लोगे ओर जिन चीजोंसे तुम अचेतन हों उनसे सचेतन हों जाओगे । और म्उलत: नयी सृाइा:टका आधार यही है : अज्ञानके स्थानपर ज्ञान, अचेतनाके स्थानपर चेतना और दुर्बलताके म्यानपर बल-सामर्थ्यकी स्थापना करना । परन्तु इसका जरूरी तौरसे यह मतलब नहीं है कि प्रत्येक चीज एकसदृश होगी और इस हदतक कि उसे पहचाना भी न जा सके ।
(लंबा मौन)
१७९ श्रीअरविन्दने हमें बताया है कि स्वयं अतिमानसमें उपलब्धिके विभिन्न स्तर है और ये स्तर क्रमिक रूपसे विकासकी उसी गतिके साथ ही व्यक्त होंगे जो विश्वकी उन्नतिकी अधिष्ठात्री रही है । लोगोंके लिये अतिमानसिक जीवनमें विकासकी कल्पना करना कठिन केवल इसलिये हो रहा है क्योंकि अबतक यह जगत् मनुष्योंके अधिकतर भागके लिये बन्द रहा है या कुछके लिये मुश्किलसे थोड़ा-सा खुला है, पर विकास वहां बना ही रहेगा । और जिस क्षण प्रगति होती है उसके साथ आरोहण मी होता है । वहां पूर्णता है पर बह मी एक निश्चित विधानके अनुसार उन्नत होती रहती है । और यह विधान चेतनाके सामने -- चाहे वह पूर्णत: आलोकित चेतना ही क्यों न हो -- क्रमश: उद्घाटित होता है और यह अज्ञानमें काम करनेके बदले सत्यमें काम करता है.. । वह कुछ चीज' जो 'अभिव्यक्ति'में संपूर्ण एवं समग्र रूपमें, एक बरगी ही (कुछ-कुछ यूं भी कहा जा सकता है कि अतिविस्तृत रूपमें) विद्यमान नहीं है, पर जो उत्तरोतर बढ़ रही है, वह भी वृद्धिके उसी विधानका अनुसरण करेगी जैसा कि यह जगत् जिसमें हम अब रहते है । पर इसके स्थानपर कि हमें पता ही न हों कि हम कहां जा रहे है, हां, हमें अपने रास्तेका पता होगा और हम उसका सचेतन रूपसे अनुसरण करेंगे । इसके स्थानपर कि व्यक्ति, बस, खड़ा कल्पना करता या अनुमान या अटकल लगाता रहे कि क्या करना चाहिये, वह देख सकेगा कि उसे कहां जाना है ओर जान सकेगा कि वहां कैसे पहुंचना है । तो यही मौलिक भेद होगा । निश्चय ही, यह कोई नीरस, उबाऊ जीवन नही होगा जहां सब कुछ अनिश्चित कालतक बना रहे और उसमें कोई परिवर्तन न हो ।
मैं समझती हू मानव चेतनामें सदा यह प्रवृति होतीं है कि वह कही पहुंच जाना, बैठ जाना चाहती है, वह ऐसा अनुभव करना चाहती है कि आखिर, यह समाप्त हो गया : ''हम पहुंच गायें, ठिकाने लग गये, अब और नहीं हिलना ।'' वह ता एक दुर्बल अतिमानस होगा ।
पर बढ़ती हुई पूर्णताकी ओर आरोहण एवं विकासकी यह गति निश्चय ही वहां स्पष्ट दीख पड़ेगी । और अन्धकारमें अपने-आपको उन्मीलित करनेके स्थानपर -- जहां हर एक अन्धा है और टटोलता है -- यह प्रकाश- मे अपने-आपका उन्मीलित करेगी और व्यक्तिको यह जाननेका आनन्द
'इस वार्ताके प्रथम प्रकाशनके समय, श्रीमांने इस ''कुछ चीज''का अधिक स्पष्टतासे वर्णन किया : ''वह अनमिव्यक्ति जो अपनी अभिव्यक्तिके लिये अतिमानसिक जगत्का प्रयोग करेगी ।'' प्राप्त होगा कि वह कहां जा रहा है और कैसे चल रहा है । बस इतना
तो तुम्हें मेरे पास आकर यह नही पूछना चाहिये. ''क्या वहां यह चीज होगी? '' या : ''क्या वहां वह चीज नहीं होगी? '' जितनी चीजों हमारे पास अब हैं उससे बहुत ज्यादा चीजों वहां होंगी । सब संभव चीजों वह्रां होंगी ।
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